सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में
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'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
कहाँ रुकेंगे मुसाफ़िर नए ज़मानों के
दिल के वीराने में इक फूल खिला रहता है
जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
कोई इस दिल का हाल क्या जाने
क्या जानिए मंज़िल है कहाँ जाते हैं किस सम्त
बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
ये जल्वा-गाह-ए-नाज़ तमाशाइयों से है
जाती है धूप उजले परों को समेट के
अब आप रह-ए-दिल जो कुशादा नहीं रखते
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था