तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबते भी देख
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फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है
ग़म-ए-दिल हीता-ए-तहरीर में आता ही नहीं
हम-जिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
ग़म-ए-उल्फ़त मिरे चेहरे से अयाँ क्यूँ न हुआ
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
इस शोर-ए-तलातुम में कोई किस को पुकारे
कोई इस दिल का हाल क्या जाने
'शकेब' अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
एक अपना दिया जलाने को