बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
मुसाफ़िरों को ग़नीमत है ये सराए बहुत
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जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
वक़्त ने ये कहा है रुक रुक कर
फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
दुनिया वालों ने चाहत का मुझ को सिला अनमोल दिया
पर्दा-ए-शब की ओट में ज़ोहरा-जमाल खो गए
आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे
प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना
क्या जानिए मंज़िल है कहाँ जाते हैं किस सम्त
कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम
पादाश
मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा