दिल सा अनमोल रतन कौन ख़रीदेगा 'शकेब'
जब बिकेगा तो ये बे-दाम ही बिक जाएगा
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फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे
गूँजता है नाला-ए-महताब आधी रात को
रात के पिछले पहर
आग के दरमियान से निकला
जाती है धूप उजले परों को समेट के
मिरे ख़ुलूस की शिद्दत से कोई डर भी गया
आया है हर चढ़ाई के बा'द इक उतार भी
शफ़क़ जो रू-ए-सहर पर गुलाल मलने लगी
बुझे बुझे से शरारे मुझे क़ुबूल नहीं