कहता है आफ़्ताब ज़रा देखना कि हम
डूबे थे गहरी रात में काले हुए नहीं
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बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका
वहाँ की रौशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत
नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है
ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है
आया है हर चढ़ाई के बा'द इक उतार भी
फ़सील-ए-जिस्म पे ताज़ा लहू के छींटे हैं
कोई इस दिल का हाल क्या जाने
हम-जिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
पर्दा-ए-शब की ओट में ज़ोहरा-जमाल खो गए
लरज़ता दीप