बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका
हम जिस पे मर मिटे वो हमारा न हो सका
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सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
मल्बूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले
ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है
दिल के वीराने में इक फूल खिला रहता है
मुझ से मिलने शब-ए-ग़म और तो कौन आएगा
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
एक अपना दिया जलाने को
जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
हम-सफ़र रह गए बहुत पीछे
मौज-ए-सबा रवाँ हुई रक़्स-ए-जुनूँ भी चाहिए