प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना
एक भी शम्अ न रौशन हो हवा के डर से
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गूँजता है नाला-ए-महताब आधी रात को
साहिल तमाम अश्क-ए-नदामत से अट गया
यूँ तो सारा चमन हमारा है
तू ने क्या क्या न ऐ ज़िंदगी दश्त ओ दर में फिराया मुझे
अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है
जाती है धूप उजले परों को समेट के
वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
इश्क़ के ग़म-गुसार हैं हम लोग
ख़्वाब-ए-गुल-रंग के अंजाम पे रोना आया
रहता था सामने तिरा चेहरा खुला हुआ
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद