जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के
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ये जल्वा-गाह-ए-नाज़ तमाशाइयों से है
मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
मीठे चश्मों से ख़ुनुक छाँव से दूर
कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
तू ने क्या क्या न ऐ ज़िंदगी दश्त ओ दर में फिराया मुझे
नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है
ख़मोशी बोल उठ्ठे हर नज़र पैग़ाम हो जाए
कनार-ए-आब खड़ा ख़ुद से कह रहा है कोई
साथी
ख़िरद फ़रेब-ए-नज़ारों की कोई बात करो
दिल सा अनमोल रतन कौन ख़रीदेगा 'शकेब'