मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
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सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
जब तक ग़म-ए-जहाँ के हवाले हुए नहीं
लोग देते रहे क्या क्या न दिलासे मुझ को
दिल सा अनमोल रतन कौन ख़रीदेगा 'शकेब'
इस ख़ाक-दाँ में अब तक बाक़ी हैं कुछ शरर से
आलम में जिस की धूम थी उस शाहकार पर
वक़्त ने ये कहा है रुक रुक कर
बस एक रात ठहरना है क्या गिला कीजे
गूँजता है नाला-ए-महताब आधी रात को
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
बेजा नवाज़िशात का बार-ए-गराँ नहीं