ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
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ग़म से कहाँ ऐ इश्क़ मफ़र है
ज़रा नक़ाब-ए-हसीं रुख़ से तुम उलट देना
बस इक निगाह-ए-करम है काफ़ी अगर उन्हें पेश-ओ-पस नहीं है
मिरी ज़िंदगी पे न मुस्कुरा मुझे ज़िंदगी का अलम नहीं
नज़र से क़ैद-ए-तअय्युन उठाई जाती है
सुब्ह का अफ़्साना कह कर शाम से
हज़ार क़ैद-ए-ख़िज़ाँ से छुट कर बहार का आसरा करेंगे
जादा-ए-इश्क़ में गिर गिर के सँभलते रहना
फिर वही जोहद-ए-मुसलसल फिर वही फ़िक्र-ए-मआश
बेगाना हो के बज़्म-ए-जहाँ देखता हूँ मैं
उन को शरह-ए-ग़म सुनाई जाएगी
नुमायाँ दोनों जानिब शान-ए-फ़ितरत होती जाती है