फिर वही जोहद-ए-मुसलसल फिर वही फ़िक्र-ए-मआश
मंज़िल-ए-जानाँ से कोई कामयाब आया तो क्या
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न पैमाने खनकते हैं न दौर-ए-जाम चलता है
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे
रूह को तड़पा रही है उन की याद
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
दूर हैं वो और कितनी दूर
मिरी ज़िंदगी है ज़ालिम तिरे ग़म से आश्कारा
पैहम तलाश-ए-दोस्त मैं करता चला गया
वो दिल में रहते हैं दिल का निशाँ नहीं मा'लूम
ख़ुश हूँ कि मिरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
ये दुनिया है यहाँ दिल को लगाना किस को आता है
उन के बग़ैर हम जो गुलिस्ताँ में आ गए
भेज दी तस्वीर अपनी उन को ये लिख कर 'शकील'