खुल गया उन की आरज़ू में ये राज़
ज़ीस्त अपनी नहीं पराई है
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बस इक निगाह-ए-करम है काफ़ी अगर उन्हें पेश-ओ-पस नहीं है
शायद आग़ाज़ हुआ फिर किसी अफ़्साने का
ग़म-ए-हयात भी आग़ोश-ए-हुस्न-ए-यार में है
उन को शरह-ए-ग़म सुनाई जाएगी
जल्वा-ए-हुस्न-ए-करम का आसरा करता हूँ मैं
वो हवा दे रहे हैं दामन की
ज़लज़ला
मैं बताऊँ फ़र्क़ नासेह जो है मुझ में और तुझ में
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे
इश्क़ की चिंगारियों को फिर हवा देने लगे
ज़िंदगी उन की चाह में गुज़री
शिकवा-ए-इज़्तिराब कौन करे