ये किस ख़ता पे रूठ गई चश्म-ए-इल्तिफ़ात
ये कब का इंतिक़ाम लिया मुझ ग़रीब से
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अलीगढ़ छोड़ने के ब'अद
तुम ने ये क्या सितम किया ज़ब्त से काम ले लिया
जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई
ज़मीं पर फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर
इश्क़ की चिंगारियों को फिर हवा देने लगे
मोहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम
जब कभी हम तिरे कूचे से गुज़र जाते हैं
दिल लज़्ज़त-ए-निगाह करम पा के रह गया
दुश्मनों को सितम का ख़ौफ़ नहीं
लम्हे उदास उदास फ़ज़ाएँ घुटी घुटी
ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक