ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे
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छुपे हैं लाख हक़ के मरहले गुम-नाम होंटों पर
शोख़ नज़रों में जो शामिल बरहमी हो जाएगी
ये क्या सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत है आज-कल
बे-तअल्लुक़ तिरे आगे से गुज़र जाता है
पहलू में दर्द-ए-इश्क़ की दुनिया लिए हुए
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
कल रात ज़िंदगी से मुलाक़ात हो गई
आँखों से दूर सुब्ह के तारे चले गए
अभी जज़्बा-ए-शौक़ कामिल नहीं है
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
फ़रेब-ए-मोहब्बत से ग़ाफ़िल नहीं हूँ
ज़िंदगी आ तुझे क़ातिल के हवाले कर दूँ