बे-तअल्लुक़ तिरे आगे से गुज़र जाता है
ये भी इक हुस्न-ए-तलब है तेरे दीवाने का
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आँख उन को देखती है नज़ारा किए बग़ैर
वज्ह-ए-क़द्र-ओ-क़ीमत-ए-दिल हुस्न की तनवीर है
ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियाँ
जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई
ये क्या सितम-ज़रीफ़ी-ए-फ़ितरत है आज-कल
लम्हा लम्हा बार है तेरे बग़ैर
ग़म की दुनिया रहे आबाद 'शकील'
तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो
ये किस ख़ता पे रूठ गई चश्म-ए-इल्तिफ़ात
जब कभी हम तिरे कूचे से गुज़र जाते हैं
मिरी ज़िंदगी है ज़ालिम तिरे ग़म से आश्कारा
वो हवा दे रहे हैं दामन की