ग़म की दुनिया रहे आबाद 'शकील'
मुफ़लिसी में कोई जागीर तो है
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रिंद-ए-ख़राब-नोश की बे-अदबी तो देखिए
ख़ुश हूँ कि मिरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
आँखों से दूर सुब्ह के तारे चले गए
रहमतों से निबाह में गुज़री
ज़रा नक़ाब-ए-हसीं रुख़ से तुम उलट देना
कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो
उजाले गर्मी-ए-रफ़्तार का ही साथ देते हैं
जो दिल पे गुज़रती है वो समझा नहीं सकते
तिरी यादों से दिल फ़रोज़ाँ करेंगे
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
ज़िंदगी उन की चाह में गुज़री
जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं