दुश्मनों को सितम का ख़ौफ़ नहीं
दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं
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बदले बदले मिरे ग़म-ख़्वार नज़र आते हैं
उन को शरह-ए-ग़म सुनाई जाएगी
ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं
रक़्क़ासा-ए-हयात से
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
कैसे कह दूँ कि मुलाक़ात नहीं होती है
नज़र से क़ैद-ए-तअय्युन उठाई जाती है
सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे
हर दिल में छुपा है तीर कोई हर पाँव में है ज़ंजीर कोई
मुझ को साक़ी ने जो रुख़्सत किया मय-ख़ाने से
इश्क़ का कोई ख़ैर-ख़्वाह तो है