कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह
ये तिरी तलब का जुनून था मुझे कब किसी से लगाव था
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ज़ियाँ गर कुछ हुआ तो उतना जितना सूद होता है
किसी का तीर किसी की कमाँ हो ठीक नहीं
बड़ी सर्द रात थी कल मगर बड़ी आँच थी बड़ा ताव था
वो एक शख़्स मिरे पास जो रहा भी नहीं
कभी भँवर थी जो इक याद अब सुनामी है
इक्का दुक्का शाज़-ओ-नादिर बाक़ी हैं
अहम आँखें हैं या मंज़र खुले तो
नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें
आ तिरे संग ज़रा पेंग बढ़ाई जाए
तू क्या जाने तेरी बाबत क्या क्या सोचा करते हैं
ज़मीं चिल्लाई चीख़ी बिलबिला के
उम्र गुज़र जाती है क़िस्से रह जाते हैं