हर आग को नज़्र-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक करूँ
हर सैल को बर्बाद सर-ए-ख़ाक करूँ
ऐ शीशा-ए-आहंग मैं मअनी की शराब
कह दे तुझे किस दर्जा मैं बे-बाक करूँ
Jaun Eliya
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किस ख़ौफ़ का दाग़ माह-ए-वा-दीद में है
मौज-ए-दरिया को पिएँ क्या ग़म-ए-ख़म्याज़ा करें
हर जल्वा-ए-हुस्न बे-वतन है
पत्थर की भूरी ओट में लाला खिला था कल
अब मुझ से ये रात तय न होगी
सब्ज़ सूरज की किरन
रात शहर और उस के बच्चे
अँधेरी शब से एक ला-हासिल
तीन शामों की एक शाम
रेशा रेशा बिखर गया मैं न कि तू
जंगल से घने ख़्वाब-ए-हक़ीक़त रम-ए-शब
लग़्ज़िश पा-ए-होश का हर्फ़-ए-जवाज़ ले के हम