रेशा रेशा बिखर गया मैं न कि तू
अपनी तह में उतर गया मैं न कि तू
ऐ सर चकराती वुसअत के मालिक
थकते थकते ठहर गया मैं न कि तू
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कनार-ए-बहर है देखूँगा मौज-ए-आब में साँप
मिट्टी हैं होंगे ज़मीन का पैवंद
पत्थर की भूरी ओट में लाला खिला था कल
आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर
हर जल्वा-ए-हुस्न बे-वतन है
अब मुझ से ये रात तय न होगी
हर आग को नज़्र-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक करूँ
शोर थमने के बाद
रफ़्तार ओ सदा गुम्बद-ए-अफ़्लाक में आए
इधर से देखें तो अपना मकान लगता है
लग़्ज़िश पा-ए-होश का हर्फ़-ए-जवाज़ ले के हम