मिट्टी हैं होंगे ज़मीन का पैवंद
फैले हुए चार सम्त असलन पाबंद
हम जड़ से उखाड़े हुए अश्जार के बर्ग
गुलशन न ज़िम्मा-दार ख़ुद्दारियाँ चे-कुनंद
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Rahat Indori
Gulzar
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
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Friends Poetry
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इधर से देखें तो अपना मकान लगता है
बनाएँगे नई दुनिया हम अपनी
माह-ए-मुनीर
तारीक रगें लहू से रौशन कर दे
बयान सफ़ाई
कनार-ए-बहर है देखूँगा मौज-ए-आब में साँप
मौज-ए-दरिया को पिएँ क्या ग़म-ए-ख़म्याज़ा करें
सब्ज़ सूरज की किरन
इक आतिश-ए-सय्याल से भर दे मुझ को
जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है
दिन-भर की दौड़ रात के औहाम वसवसे
रेशा रेशा बिखर गया मैं न कि तू