बनाएँगे नई दुनिया हम अपनी
तिरी दुनिया में अब रहना नहीं है
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जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है
अँधेरी शब से एक ला-हासिल
जंगल से घने ख़्वाब-ए-हक़ीक़त रम-ए-शब
रेशा रेशा बिखर गया मैं न कि तू
मौसम-ए-संग-ओ-रंग से रब्त-ए-शरार किस को था
आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर
सब्ज़ सूरज की किरन
मौज-ए-दरिया को पिएँ क्या ग़म-ए-ख़म्याज़ा करें
किस ख़ौफ़ का दाग़ माह-ए-वा-दीद में है
इधर से देखें तो अपना मकान लगता है
महफ़िल का नूर मरजा-ए-अग़्यार कौन है
मसल कर फेंक दूँ आँखें तो कुछ तनवीर हो पैदा