किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द
कहीं पे शाम-ए-ग़रीबाँ कहीं दिवाली है
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पर्दा-ए-रुख़ क्या उठा हर-सू उजाले हो गए
सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है
जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है
जो तेरी यादों से इस दिल का आफ़्ताब मिले
हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है
मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
अपनी आँखों पर वो नींदों की रिदा ओढ़े हुए
गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ
हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है
पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब
ज़ुल्म करते हुए वो शख़्स लरज़ता ही नहीं