हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है
जो सब को बाँटता फिरता था ख़ुद सवाली है
किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द
कहीं पे शाम-ए-ग़रीबाँ कहीं दिवाली है
तुम्हारे सामने कैसे ज़बाँ को जुम्बिश दें
तुम्हारे शहर में सच बोलना भी गाली है
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जो तेरी यादों से इस दिल का आफ़्ताब मिले
सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है
गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ
सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर
पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है
जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है
अपनी आँखों पर वो नींदों की रिदा ओढ़े हुए
पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब
जो आँसुओं की ज़बाँ को मियाँ समझने लगे