सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर
ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे
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ज़ुल्म करते हुए वो शख़्स लरज़ता ही नहीं
पर्दा-ए-रुख़ क्या उठा हर-सू उजाले हो गए
जो तेरी यादों से इस दिल का आफ़्ताब मिले
मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द
हवा के दोश पे बादल की मुश्क ख़ाली है
गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ
पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है
सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है
हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है