पेड़ के नीचे ज़रा सी छाँव जो उस को मिली
सो गया मज़दूर तन पर बोरिया ओढ़े हुए
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सुकून-ए-क़ल्ब मयस्सर किसे जहान में है
हमारे जिस्म के अंदर भी कोई रहता है
मिले हैं दर्द ही मुझ को मोहब्बतों के एवज़
किसी को मार के ख़ुश हो रहे हैं दहशत-गर्द
हमारे सर हर इक इल्ज़ाम धर भी सकता है
जो अपनी चश्म-ए-तर से दिल का पारा छोड़ जाता है
जो तेरी यादों से इस दिल का आफ़्ताब मिले
गर दर-ए-हर्फ़-ए-सदाक़त ये नहीं था फिर क्यूँ
जो आँसुओं की ज़बाँ को मियाँ समझने लगे
पहुँच गया था वो कुछ इतना रौशनी के क़रीब
वो डर के आगे निकल जाएगा अगर यूँही