एक बेचैन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद
टूट जाए जो ये दीवार तो मंज़र देखूँ
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दिल-ए-आईना-सामाँ पारा पारा कर के देखा जाए
मैं भी आवारा हूँ तेरे सात आवारा हवा
आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
रात हुई फिर हम से इक नादानी थोड़ी सी
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
अजीब धुँद है आँखों को सूझता भी नहीं
वही रंग-ए-रुख़ पे मलाल था ये पता न था
उस ने सोचा भी नहीं था कभी ऐसा होगा
होंटों पे सुख़न आँखों में नम भी नहीं अब के
न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़
दिल ही गिर्दाब-ए-तमन्ना है यहीं डूबते हैं
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को चुप आस्तीं को तर पा कर