तिरी अबरू है मेहराब-ए-मोहब्बत
नमाज़-ए-इश्क़ मेरे पर हुई फ़र्ज़
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उश्शाक़ का दिल दाग़ का अंदाज़ा हुआ महज़
दिलदार की कशिश ने ऐंचा है मन हमारा
सीना-साफ़ी की है जिसे ऐनक
मख़मूर चश्मों की तबरीद करने कूँ शबनम है सरदाब शोरों की मानिंद
मस्जिद अबरू में तेरी मर्दुमुक है जिऊँ इमाम
ग़म की जब सोज़िश सीं महरम होवेगा
ताज़ा रख आब-ए-मेहरबानी सीं
ऐ दोस्त तलत्तुफ़ सीं मिरे हाल कूँ आ देख
किया है जब सीं अमल बे-ख़ुदी के हाकिम ने
इश्क़ की जो लगन नहीं देखा
हक़ में उश्शाक़ के क़यामत है
हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी