मस्जिद अबरू में तेरी मर्दुमुक है जिऊँ इमाम
मू-ए-मिज़्गाँ मुक़तदी हो मिल के करते हैं नमाज़
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मुझ रंग ज़र्द ऊपर ग़ुस्से सीं लाल मत हो
जलव-ए-जाँ-फ़ज़ा दिखाता रह
रिश्ते में तिरी ज़ुल्फ़ के है जान हमारा
मुफ़्ती-ए-नाज़ ने दिया फ़तवा
तुझ पर फ़िदा हैं सारे हुस्न-ओ-जमाल वाले
कौन कहता है जफ़ा करते हो तुम
जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है
हर हर वरक़ पे क्यूँ कि लिखूँ दास्तान-ए-हिज्र
ज़िंदगानी दर्द-ए-सर है यार बिन
हर किसी कूँ गुज़र-ए-इश्क़ में आनाँ मुश्किल
क़द तिरा सर्व-ए-रवाँ था मुझे मालूम न था
जिस ने तुझ हुस्न पर निगाह किया