आशिक़ी हो कि बंदगी 'फ़ाख़िर'
बे-दिली से तो इब्तिदा न करो
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दिल के दीवार-ओ-दर पे क्या देखा
शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया
अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
देखने वालो तबस्सुम को करम मत समझो
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
दिल तो रोता रहे ओर आँख से आँसू न बहे
इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
दुनिया से वफ़ा कर के सिला ढूँढ रहे हैं
हम से पूछो न दोस्ती का सिला