गर्दिश-ए-आब-ओ-हवा जानती है
इक ख़ला है जो पुर नहीं होता
ये आँख तंज़ न हो ज़ख़्म-ए-दिल हरा न लगे
पेच-दर-पेच सवालात में उलझे हुए हैं
हाल-ए-दिल-ए-तबाह किसी ने सुना कहाँ
मैं पर-शिकस्ता न था बादलों के बीच मगर
जिसे ना-ख़्वाब कहते हैं उसी को ख़्वाब कहते हैं
न जाने रौज़न-ए-दीवार क्या जादू जगाता है
कहीं शो'ला कहीं शबनम, कहीं ख़ुशबू दिल पर
मैं देखता हूँ फ़राज़-ए-जुनूँ से दुनिया को
ख़ाकसारों से क़रीं रहता है
बहार आती है लेकिन सर में वो सौदा नहीं होता