हल्क़ा-ए-शाम-ओ-सहर से नहीं जाने वाला
दर्द इस दीदा-ए-तर से नहीं जाने वाला
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किसी से इश्क़ हो जाने को अफ़्साना नहीं कहते
अजीब शय है तरह-दार भी तमन्ना भी
मैं पर-शिकस्ता न था बादलों के बीच मगर
वजूद को जिगर-ए-मो'तबर बनाते हैं
किसी ख़याल की रौ में था मुस्कुराते हुए
अजब नहीं कि हो दीवार नुक़्ता-ए-मौहूम
हवा का तब्सिरा ये साकिनान-ए-शहर पे था
इक ख़ला है जो पुर नहीं होता
बे-लुत्फ़ है ये सोच कि सौदा नहीं रहा
गर्दिश-ए-आब-ओ-हवा जानती है
लज़्ज़त-ए-दीद ख़ुदा जाने कहाँ ले जाए