जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को
जनाब-ए-शैख़ को हम भी मगर समझते हैं
Jaun Eliya
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ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है
किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है
बस्तियों में होने को हादसे भी होते हैं
हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
वो नाज़ुक सा तबस्सुम रह गया वहम-ए-हसीं बन कर
मिरी सहबा-परस्ती मोरीद-ए-इल्ज़ाम है साक़ी
छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
मैं ने कब दावा-ए-इल्हाम किया है 'ताबाँ'
हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
दौर-ए-तूफ़ाँ में भी जी लेते हैं जीने वाले
छटे ग़ुबार नज़र बाम-ए-तूर आ जाए