हमारी तरह ख़राब-ए-सफ़र न हो कोई
इलाही यूँ तो किसी का न राहबर गुम हो
Anwar Masood
Habib Jalib
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Gulzar
Mir Taqi Mir
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Rahat Indori
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ये चार दिन की रिफ़ाक़त भी कम नहीं ऐ दोस्त
यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
बहार आई गुल-अफ़्शानियों के दिन आए
छटे ग़ुबार-ए-नज़र बाम-ए-तूर आ जाए
शबाब-ए-हुस्न है बर्क़-ओ-शरर की मंज़िल है
निखर गए हैं पसीने में भीग कर आरिज़
किसी के हाथ में जाम-ए-शराब आया है
मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
लुत्फ़ ये है जिसे आशोब-ए-जहाँ कहता हूँ
बस्तियों में होने को हादसे भी होते हैं
जुनूँ ख़ुद-नुमा ख़ुद-नगर भी नहीं