मंज़िलें राह में थीं नक़्श-ए-क़दम की सूरत
हम ने मुड़ कर भी न देखा किसी मंज़िल की तरफ़
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जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
ज़िंदगी दिल पे अजब सेहर सा करती जाए
यादों के साए हैं न उमीदों के हैं चराग़
जुनूँ में और ख़िरद में दर-हक़ीक़त फ़र्क़ इतना है
बस्ती में कमी किस चीज़ की है पत्थर भी बहुत शीशे भी बहुत
लुत्फ़ ये है जिसे आशोब-ए-जहाँ कहता हूँ
हर मोड़ को चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र कहो
नुमू के फ़ैज़ से रंग-ए-चमन निखर सा गया
भूले तो जैसे रब्त कोई दरमियाँ न था
ग़ुबार-ए-राह चला साथ ये भी क्या कम है
हुजूम-ए-दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो