कोई इज़हार कर सकता है कैसे
ये लफ़्ज़ों से ज़बाँ का फ़ासला है
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ज़माने से अलग थी मेरी दुनिया
उतर गया है रग-ओ-पय में ज़ाइक़ा उस का
ये शहर आफ़तों से तो ख़ाली कोई न था
कई पड़ाव थे मंज़िल की राह में 'ताबिश'
शायरों का जब्र
न देखें तो सुकूँ मिलता नहीं है
कहाँ आ गई हो
अजीब सुब्ह थी दीवार ओ दर कुछ और से थे
बिल-जब्र
कहीं से तुम मुझे आवाज़ देती हो
यक़ीं से जो गुमाँ का फ़ासला है
सारबान