उतर गया है रग-ओ-पय में ज़ाइक़ा उस का
अजीब शहद सा कल रात उस ज़बान में था
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कहाँ आ गई हो
कोई इज़हार कर सकता है कैसे
कहीं से तुम मुझे आवाज़ देती हो
क्या कहूँ वो किधर नहीं रहता
कब खुलेगा कि फ़लक पार से आगे क्या है
हम उस धरती के बाशिंदे थे 'ताबिश'
ज़माने से अलग थी मेरी दुनिया
न देखें तो सुकूँ मिलता नहीं है
देव-मालाएँ सच्ची होती हैं
क़िस्सा-ए-शब