यक़ीं से जो गुमाँ का फ़ासला है
ज़मीं से आसमाँ का फ़ासला है
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एक बुज़ुर्ग शायर परिंदे का तजरबा
कब खुलेगा कि फ़लक पार से आगे क्या है
अजीब सुब्ह थी दीवार ओ दर कुछ और से थे
न देखें तो सुकूँ मिलता नहीं है
कहीं से तुम मुझे आवाज़ देती हो
ये शहर आफ़तों से तो ख़ाली कोई न था
कोई इज़हार कर सकता है कैसे
ज़माने से अलग थी मेरी दुनिया
बे-घरी
हम उस धरती के बाशिंदे थे 'ताबिश'