मसअला ये भी तो है इस अहद का ऐ जान-ए-जाँ
क्यूँ निछावर जाँ करें किस के लिए ज़िंदा रहें
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पत्ता पत्ता शाख़ से टूटे दरवाज़ों पे वहशत सी
किस ने आ कर हम को दी आवाज़ पिछली रात में
जी में आता है कि चल कर जंगलों में जा रहें
काली घटा में चाँद ने चेहरा छुपा लिया
खिड़की में एक नार जो महव-ए-ख़याल है
शहर के दीवार-ओ-दर पर रुत की ज़र्दी छाई थी
मैं ने ज़ुल्मत के फ़ुसूँ से भागना चाहा मगर
बंद दरीचों के कमरे से पूर्वा यूँ टकराई है