इस ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे मुझे नाज़ बहुत है
वो शख़्स मिरी जाँ का तलबगार हुआ है
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दुखों के रूप बहुत और सुखों के ख़्वाब बहुत
जान के एवज़
टूटी है ये कश्ती तो मिरे साथ सफ़र को
अन-देखी लहरें
चार साल बा'द
जचती नहीं कुछ शाही-ओ-इम्लाक नज़र में
कभी बहुत है कभी ध्यान तेरा कुछ कम है
आख़िरी कील
मैं अपनी नज़्में वापस लेने को तय्यार हूँ
हम दोनों में से एक
आज़ादी से नींदों तक