हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
सो ये ग़म आख़िरी हिचकी से उठा
Wasi Shah
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यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
हमारी राह में बैठेगी कब तक तेरी दुनिया
याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी
बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़