मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
हाए वो लोग जो मेहवर से निकल जाते हैं
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याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
हमारी राह में बैठेगी कब तक तेरी दुनिया
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा
ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी