ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
जिस को देखो वही औक़ात से निकला हुआ है
Rahat Indori
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Wasi Shah
Jaun Eliya
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Gulzar
Anwar Masood
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
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रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
अब ज़माने में मोहब्बत है तमाशे की तरह
बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
लफ़्ज़ की क़ैद से रिहा हो जा