इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग
और समझते हैं कि जलता नहीं तू भी मैं भी
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सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी
जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़
अब ज़माने में मोहब्बत है तमाशे की तरह
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी