जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़
अब गुज़रती हैं तिरे शहर में शामें ऐसी
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कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
कल जहाँ दीवार ही दीवार थी
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के
ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
परी उड़ जाएगी और राजधानी ख़त्म होगी
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है
बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह