बदन में दिल था मुअल्लक़ ख़ला में नज़रें थीं
मगर कहीं कहीं सीने में दर्द ज़िंदा था
Anwar Masood
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Ahmad Faraz
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Faiz Ahmad Faiz
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कोई तासीर तो है इस की नवा में ऐसी
जैसे वीरान हवेली में हों ख़ामोश चराग़
मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग
दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
रूठ कर आँख के अंदर से निकल जाते हैं
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है