बदन में रूह की तर्सील करने वाले लोग
बदल गए मुझे तब्दील करने वाले लोग
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इन सुलगती हुई साँसों को नहीं देखते लोग
ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स
सब्ज़ पेड़ों को पता तक नहीं चलता शायद
याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है
कहीं शुऊर में सदियों का ख़ौफ़ ज़िंदा था
यहीं आना है भटकती हुई आवाज़ों को
दर्द जब से दिल-नशीं है इश्क़ है
मैं तिरे हिज्र से निकलूँगा तो मर जाऊँगा
सूरत-ए-इश्क़ बदलता नहीं तू भी मैं भी
फेंक दे ख़ुश्क फूल यादों के