एक साए की तलब में ज़िंदगी पहुँची यहाँ
दूर तक फैला हुआ है मुझ में मंज़र धूप का
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कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे
नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर
सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
कोई वादा न देंगे दान में क्या
दिल ने फिर चाहा उजाले का समुंदर होना
ज़ुल्म को तेरे ये ताक़त नहीं मिलने वाली
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
धूप होते हुए बादल नहीं माँगा करते
वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने