हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
नेकियाँ कर के कभी फल नहीं माँगा करते
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Faiz Ahmad Faiz
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दिल ने फिर चाहा उजाले का समुंदर होना
ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
कोई वादा न देंगे दान में क्या
ज़ुल्म को तेरे ये ताक़त नहीं मिलने वाली
उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे
हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
वो मौसमों पर उछालता है सवाल कितने
सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा