उस के वा'दे के एवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी
एक सस्ती शय का ऊँचे भाव सौदा कर लिया
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ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
एक साए की तलब में ज़िंदगी पहुँची यहाँ
दिल ने फिर चाहा उजाले का समुंदर होना
सभी ज़ख़्मों के टाँके खुल गए हैं
हम बुज़ुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई
हर तरफ़ फैला हुआ बे-सम्त बे-मंज़िल सफ़र
ये बिफरती मौज अंदेशे समुंदर और मैं
कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे
सफ़र अंजाम तक पहुँचे तो कैसे
कोई वादा न देंगे दान में क्या
नफ़रतों का अक्स भी पड़ने न देना ज़ेहन पर